सती स्तंभ तक पहुंचने के लिए एक नए रास्ते का निर्माण कार्य जारी
सागर (sagarnews.com)। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (ASI) सागर जिले के ऐरण में स्थित गुप्तकालीन मंदिरों, स्मारकों और स्तंभों का प्राथमिकता के आधार पर संरक्षण कार्य कर रहा है। संरक्षण कार्यों के अंतर्गत सती स्तंभ तक पहुंचने के लिए एक नए रास्ते का निर्माण भी किया जा रहा है।
ऐरण (Eran) में वराह (Varaha idol) अवतार की ऐसी मूर्ति है, जो पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है। वराह की मूर्ति 12 फीट ऊँची और 15 फीट लंबी है। ये मूर्ति लाल बलुआ पत्थर के एक ही बड़े टुकड़े पर बनी हुई है, जो हैरान कर देती है। अब इस मूर्ति को संरक्षित किया गया है। इस मूर्ति के संरक्षण में लंबा समय लगा, लेकिन अब अगले कई वर्षों तक ये मूर्ति सुरक्षित रहेगी।
ऐरण में स्थित वराह की इस मूर्ति लगभग 1,200 चित्र भी बने हैं, जिसमें तमाम देवी-देवता हैं। यह संरचना गुप्त काल की है और इतिहास की गवाह है। यहाँ तक कि इस क्षेत्र पर हमला करने वाले हूणों ने भी मूर्ति की गर्दन पर एक शिलालेख अंकित करके अपना योगदान दिया। अब इस मूर्ति का संरक्षण किया गया है, ताकि इसे और क्षति न पहुँचे। ऐरण के अभिलेखों को गुप्त काल का गवाह माना जाता है। ऐरण में 47 फुट ऊँचा एक स्तंभ भी है जो एक ही शिला से बना हुआ है। इस सती स्तंभ तक पहुंचने के लिए एक नए रास्ते का निर्माण भी किया जा रहा है।
ASI के जबलपुर सर्कल के अधीक्षण पुरातत्वविद् शिवकांत वाजपेयी ने कहा, यह संरक्षण कार्य लंबे समय से लंबित था। अब, ‘वराह’ मूर्ति कम से कम 15-20 वर्षों तक अच्छी हालत में रहेगी। ऐरण परिसर का संरक्षण किया जाएगा। हमारा लक्ष्य अपने सर्कल में हर स्मारक को संरक्षित करना है। इसके संरक्षण का कार्य ASI के रायपुर सर्कल ने किया है। इसे संरक्षित करने के लिए रसायनों का उपयोग किया गया और मूर्ति उग घई शैवाल जैसी जैव-कोशिकाओं को हटाया गया। एएसआई की रायपुर स्थित विज्ञान शाखा के उप-अधीक्षण रसायनज्ञ प्रदीप मोहपात्रा ने कहा, “हम सुनिश्चित करते हैं कि स्मारक अगली पीढ़ी को उसी तरह से दिया जाए जैसा हमें मिला।”
भगवान वराह को विष्णु का 16वाँ अवतार माना जाता है। भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध करने के लिए यह अवतार लिया था। वराह की मूर्ति पर हूण राणा तोरमाण का भी उल्लेख है, जिसका शासनकाल 495 ईस्वी के आसपास का माना जाता है। इस वराह मूर्ति की जीभ पर माँ सरस्वती की आकृति है, तो वृश्तिक, कन्या, मत्स्य व अन्य राशियों का भी अंकन है। इस मूर्ति पर मंदिर भी बना है, जिसमें शिव, ब्रह्मा, विष्णु, गणेश आदि देवी-देवताओं को भी जगह मिली है।
एरण का इतिहास में उल्लेख बहुत पुराना
सबसे पहले 1838 ईस्वी में भारत के प्रसिद्ध पुरातत्वविद टीएस बर्ट ने ऐरण की खोज की थी, इसके बाद भारतीय पुरातत्व के प्रथम महानिदेशक जनरल अलेग्जेंडर कनिंघम ने 1874-75 ईस्वी में इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया और यहाँ से प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं अभिलेखों और मुद्राओं का विवरण आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट में प्रकाशित करवाया। ऐरण के पुरातात्विक महत्व के बारे में और अधिक जानने के लिए डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग ने खुदाई करवाई थी।
ऐरण नगर का जिक्र ऋग्वेद में भी मिलता है। इसे एरिणिया कहा गया है। ऐरण के इन प्राचीन शिलालेखों को देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक यहाँ पहुँचते हैं। ऐरण के अभिलेख 510 ईसवीं के माने जाते हैं।
ADM रूपेश उपाध्याय ने गुरुवार को ऐरण में चल रहे संरक्षण कार्यों का निरीक्षण किया। उन्होंने ऐरण स्थित सती स्तंभ तक पहुंचने के लिए बनाए जा रहे नए रास्ते का भी निरीक्षण किया। उन्होंने कहा कि ऐरण जैसे प्राचीन स्थल को विश्व पटल पर पहचान मिले, इसके लिए आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के द्वारा भी यहां प्राथमिकता के आधार पर संरक्षण से संबंधित कार्य किये जा रहे हैं। ऐरण के अतिरिक्त उन्होंने मंडीबामोरा के शिव मंदिर का भी निरीक्षण किया।
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